रविवार, 2 अगस्त 2020

मुक्तक: मुंतज़र ए दिल

मुक्तक मुंतज़र  ए  दिल
 
दिल के दिए को जला के रखा था 
चौखट पे दालान के सोचा था,
आएगा कोई अँधियारे मे मुस्कराने की वजह लेकर
क्या पता था मुंतज़र ए बयार बेकार है ,
 सामने सहरा की एक लंबी दीवार है,
 गुजर गई आई दीवाली मुस्कान बिखेर
, हम तो अब तक मुंतज़र मे ही बैठे है
 दिल के दिए को जला सींचते लहू से बाती.....
....उमेश

मन मोह लिया तूने , अब तो दरस दिखा जा।
तन मन है तुझमें खोया,  छू कर मुझे जगा जा ।
25.03.16

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