शनिवार, 15 अगस्त 2020

कल्पित यथार्थ

कल्पित यथार्थ
 
 
कभी कभी,
व्यक्त नहीं कर पाता , मैं
अपनी बेचैनियां,
अकुलाहटें,
जो चेतन या अचेतन में कहीं,
मथती रहती हैं
सम्पूर्ण अहसासों को,
इस त्रि-आयमी 
पंजर में मेरे ।

मैं कूर्म सा,
वहन करता,लालसाओं के 
अनन्त नग, मदरांचल को,
जो मथानी है बना,
अन्तस सगर में ।
भोगेन्द्रियों का छोरहीन वासुकी
है डुलाता मदरांचल को,
सुर कभी ,कभी असुरों कीओर ।
,
फेड़ित हुआ, रथी,
आत्म चिन्तन,
बुदबुदों सा उड़ रहा,
तल को तरसता
अतल सी गहराईयों में  ,
है डूबता जा रहा ,
खींचती हैं निरन्तर
अन्धकूप सी गहराईयां
ज्यूं रथी को ।
मोह की माया में काया
रत हुई ज्यों,
व्यक्तित्व सारा
खो रहा इस अन्धमय
ज्ञान पथ पर ।

संधानने को 
ध्येय पथ को 
नित,
तम के विवर में हूं भले
पर एकाकी नहीं
त्रिनेत्रधारी मेरा शंभु
गाहे है बाहें मेरी ।


जगति कीचक मे
लिपटा हुआ मैं,
पवन के वेग सा
बहता रहा हूं ।
ब्योम सा हो रहा
तिमिर रस पीता रहा हूं ।
मगर यह जानता
सत्य सुन्दर सदा
तिमिर को शेष कर
उझास ही फिर आयेगा
मेरा शिव साथ है जब
रवि तेज,किस तिमिर में
छिप पायेगा ।

हूं भिज्ञ,
जीवन की हर लालसा से,
मायावी चासनी से
रिझाती रहती जो सदा,
ऐसा नहीं, कि,
अनभिज्ञ हूं ,
सीमाओं से खुद की,
यही तो कारक बने हैं
अकुलाहटों, बेचैनियों की
मेरे,

चाहता हूं 
निर्लेप रहना,
विदेह बन
माया ठगी को
स्वयं ठगना,
पर ठगा जाता रहा हूं ,
स्वयं की कर्मेन्द्रियों
से हार कर,
हूं सहारे बस एक उसके
जो मेरा "हर" है,
उसके सहारे ही चला हूं,
चल रहा हूं,
अकुलाहटों,बेचैनियों
में घिरा,
मुस्कुराहटो को अधरों पर
सजाये
पल रहा हूं  ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक १९ .०८.२०२०
 



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