शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

" तुम "

" तुम "

अल्हड़ निर्झरणी की धारा सी
मेघ घनेरी बन उठती तुम
मेरे तन मन के आंगन को
स्नेहिल शीतल कर जाती हो ।

पुष्पित, सुरभित वन बयार सी
अन्तस तक गमकाती तुम
मेरे तन के हर श्वासों में
अबूझ चेतना भर जाती हो ।
 
मुकुल ,कली से पुष्पित सी
कोमल भाव जगाती तुम
अरूण रश्मि सी, भेद मुझे
आनन्द मग्न कर जाती हो ।

झंकृत वीणा की ध्वनि सी
अन्तस ऋचा जगाती तुम
भाव जगत की ज्योति जला
साम गान कर जाती हो ।

अदृष्य जगत की प्रभापुण्ज सी
अलौकिक जगत सजाती तुम
मेरे हर तम को, हर , हर कर
हरि , हर नाद सुना जाती हो ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक ०६. ०९ . २०

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