गुरुवार, 31 मार्च 2016

खंडहर

 खंडहर


ना जाने क्यूँ
आकर्षित करते हैं
मुझे
ये खंडहर
जब भी गुजरता हूँ मैं
इनके आस-पास से


इन पर चढ़
लिपटी हुई लताये
अहसास कराती हैं
मुझे ,ज्यूँ
वो भी हैं इनके मोहपास से
बिधीं
और लिपटी हैं उनसे ज्यूँ ,
अपनी सामर्थ्य भर
मिटने न देंगी
वजूद उसका
ज्यूँ प्रेयसी  बँधी
मोहपास में
अपने प्रिय के
कर देती है समर्पित
अपना सर्वश्व ,
 रहने को संग उसके उम्र भर

बड़े बड़े दरख़्त
चहूँ ओर से घेरे उसे
लगता है कर रहे हो,
 उसकी बुढ़ापे में तिमारदारी
व कह रहे हों
बरखा ,जाड़ा घाम, का
तुम पर न होने देंगे असर

वातायनो से लगता है
कोई सुघड़ कमसिन सा चेहरा
झाँकेगा अभी
और दरवाजे से बाहर गूंजेगी
छोटे छोटे कदमो में बँधी पायजेब
दौड़ती बिटिया की किलकारियों के साथ

उस तरफ पीछे के छज्जे के बगल
 बैठे हो लगता बाबू जी
धूप सेंकते,
अम्मा से हौले हौले बतियाते हुए
रसोई घर से मालपुओं की सोंधी महक
कमसिन की चूड़ियों की खनक
अब भी आती महसूस होती

बैठक के कमरे मे खड़ा
ये आम्र तरु
आभास देता सब के पालक
घर के मुखिया के धमक की
जो झुक है जाता पालने में सभी के
बाटने को सुख समृद्धि सभी को
ज्यूँ झुका है यह तरु फलों से लद

ओसारी के किनारे खड़े
सूखे से  ठूंठ
आभासित कराते
लगने वाली महफ़िलों को
लगता है ज्यूँ हों कुर्सियाँ व मेजें
प्रतीक्षारत अपने
कदरदानों की
की आएँगे व  विराजित हो के उन पर
शोभा बढ़ाएँगे समारोह की , अभी

ढलती सांझ में
अलसाया सा खड़ा
प्रतीक्षारत ये खंडहर
शायद, तक  रहा है राह उसकी
जिसने, संवारा , बसाया था उसे
जिसके सानिध्य से वह बना था घर
और, चाहता सा लगता है
फिर पुराने दिन लौट आएँ


पर कहाँ ऐसा हुआ है कभी
कि, बीता समय लौटा हो ,
शायद यही कारण दिखता है
मायूस खंडहर की मायूसी का
की वह अंतस में कहीं ये जानता है
कि ज़रा से आगे अब मृत्यु ही पाएगा
लौट कर न युवा न बचपने में वो जाएगा.

उमेश कुमार श्रीवास्तव (०१.०४.२०१६)

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