शुक्रवार, 18 मार्च 2016

आत्म-वेदना


आत्म-वेदना





चिंतन की धारा है
कुंठित
मन उदिग्घ्न
वाणी अवरोधित

त्रिशंकु बन गया
है , विवेक
आत्म , अंधेरी कोठी में
संकुचित हुआ सा
बैठ गया

पराकाष्ठा छू
बेकलता की
मस्तिष्क धमनियाँ
सिकुड गई

रोने की सोच
नयन द्वय
तड़ाग बन गये सूखे-सूखे
जिव्हया भी अकड़ गई
पुकार लगाने की चाहत ले

सुन्न पड़ गई सारी काया
मरण बिंदु की सीमा तक
जीवन ही हो गया निरर्थक
मृत्यु , सार्थकता पर्याय बनी
हो मंज़िल को इंकित करती
ना राह रह गई अब कोई
नई राह अब, ढूँढ सकूँ
कहाँ रही काया भी

पितृ सदृश्य तू
सम्पूर्ण जगत का
तो पुत्र तेरा ही मैं भी हूँ
शरणागत हूँ कैसे समझू
जब अंश तेरा ही मैं भी हूँ

नीर मेरे क्या,
ना पीड़ा देते
गर देते तो,दे दो वो
पाले बैठा जिसकी चाहत
चिन्ताओ में घुलता हूँ
और निरर्थक इस काया में
शव सदृश्य ही पलता हूँ

या मुक्त करा दो
पिंजर से
उन्मुक्त धरा पर आने को
अपनी इच्छाओं की सीमा से
दूर सूक्ष्म में जाने को

...उमेश श्रीवास्तव...18.04.1993


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