रविवार, 28 मार्च 2021

आकाक्षाओं के पद तले

आकाक्षाओं के पद तले

नित संघर्ष
स्वमं से
द्धन्द, मल्ल
उन्माद की
सीमा तले

जीवन !
जीवन
चलता चले
तल्ख धूप हो
या चांदनी हो चढ़ी
हम खड़े
ताड़ से , 
और
अखाड़े में पड़ी है 
उम्र ,
कदमों तले

तलासते खुशियां
गुम हो गये
खोजने लगे 
अब
स्वमं को 
सभी
सम्भवतया
स्वंम मैं भी

कई दिन हुए
खुद से मिले
औरों की आदत
यूं पड़ गई

आज जो हम मिले
चौंक ही हम गये
जो गैरोँ सा उसे
बस देखते ही रहे
किताबों में वो कहीं
पढ़ा सा लगा
वो अनजान था
कुछ परेशां लगा

कुछ इसारे किये
मगर मौन ही
इधर द्वन्द था
ना समझने का ही

हिकारत भरी 
नजर डाल कर
विदा कर दिया
अजनबी सा उसे

है फुरसत कहां
भूत से मैं मिलूं
आज से भी मिलूं
जब वक्त ,ये ही नहीं

दूर की सोच है
इक महल स्वप्न का
चाहतों के किले 
हैं घेरे मुझे
जिनके लिये
बस जी रहा हूं

आकाक्षाओं का घेरा 
संकुचित क्यूं करू
भोगना है मुझे
सुख की हर बून्द को

सुख के लिये
द्वन्द जी रहा हूं
चिन्तन बिना
कल जी रहा हूं
हूं खोया स्वमं को
आज की दौड़ में
ये जाने बिना
तम विवर में जीने के
पल जी रहा हूं

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, दि० २९.०३.१७

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