शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

ऐ ,भौतिक प्रलोभन

ऐ ,भौतिक प्रलोभन 
कितनी बार तुमसे कहा 
कि , 
ना आया करो यूँ 
चुपके से। 
मुझे तुम्हारा यह तरीका 
नागवार लगता है 
चुपके से खलल डालना 
एकांत आराधना में 
मेरी,
टेशू से दहकते 
मदमस्त यौवन से अपने 

कितनी बार रोका है तुम्हे 
कि, 
मुझे भाते नहीं 
ऋतुराज 
और तुम हो कि 
पतझड़ में भी 
बुला लाती हो उन्हें 
जलाने को मुझे 

मैंने कहा था न तुम्हे 
मैं विश्वामित्र नहीं बन रहा 
तुम्हारी मेनका बनने कि चाह 
तुम्हे 
नचा रही है यूँ 
उतार दो तुम इन्हे 
और फेंक दो दूर 
क्षितिज के पास 
जहां से फिर , मिल ना सकें 
और , न अवरोध ही बने 
मेरे 
ये तुम्हारे सरगमी 
नूपुर 

क्यूँ नाहक तुम 
देती हो दस्तक , उन द्वारों पर 
जिन्हे खुले सदियाँ ही नहीं 
इक युग 
गुजर चुका  है 
मुझे चिढ सी होने लगी है 
अब तो 
जहां थी पहले 
सहानभूति। 
कि , तुम चाहती हो 
पत्थर को द्रव्य बना
मुहर लगाना 
विजय पर अपनी 

यैसा नहीं कि मैं 
मुग्ध नहीं हूँ 
इस लावण्यमयी 
यौवन से तेरे 
मैं भी चाहता हूँ 
इक सुहाना संसार 
जीने को 
तुम सी ही संगिनी 
सुधा- अधर पीने  को 

पर नहीं चाहता तो बस 
किसी सुमन का 
यौवन में ही मुरझाना 
मैं स्वयं को जानता हूँ 
बस कारण इतना 
दूर रहने का तुमसे 
क्यूँ कि तुम सी कली 
न सहेज पाऊंगा 
अपने जीवन ध्येय से 
भटक 
अपने आराध्य को 
विलग कर। 
न यही चाहूंगा 
मुरझा जाओ तुम 
मुझे पराजय का 
अहसास करा 

      उमेश कुमार श्रीवास्तव 

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