गुरुवार, 2 जनवरी 2014

क्या तुम वही हो ?

क्या तुम वही  हो   ?

क्या तुम वही हो 
जिसको खोजता रहा मैं 
सदियों से स्वप्न में 
जागती , सोती और 
ऊंघती आँखों से 
शायद ,
शायद नहीं भी। 


क्या तुम वही हो 
जिस पर मैंने 
घण्टों किया है चिंतन 
अनवरत वर्षों से ,
इक प्रकोष्ट ही , मस्तिष्क का 
संजोता रहा 
उन संकेतों को 
जिन्हे भेजा था नयनो नें 
क्षण प्रतिक्षण मस्तिष्क को 
अपने स्वप्नो से खींच 
और जिसका रेखांकन भी 
धुंधला सा बना रखा था 
मैं अभी संशय में हूँ 
कि , क्या तुम वही हो ?
शायद ,
शायद नहीं भी। 

क्या तुम वही हो 
जिसे मैंने माँगा था 
उस ब्रम्ह से 
जिसे शायद मैं कुछ दे न सका हूँ 
इसी लिए माँगा था 
उसे , जिसका प्रतिरूप , रूप 
आज सम्मुख हो तुम 
क्या तुम वही अर्धांश हो मेरी 
जिससे मिल मैं सम्पूर्ण हो सकूंगा 
और दे सकूंगा उस ब्रम्ह को 
अंश उसका , उसके मन का 
शायद तुम वही हो 
शायद , 
शायद नहीं भी 

संशय का यह आवरण 
कब तक रहेगा  छाया 
कभी ना कभी तो हटेगा 
राज पर से यह झीना परदा 
कि , तुम वही हो या नहीं हो 
तब तक मैं उन्ही शायदों में 
जीता रहूंगा , कहता रहूंगा 
कि , शायद तुम वही हो 
या , शायद तुम नहीं हो 

             उमेश कुमार श्रीवास्तव 

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