सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

रे अधीर मन


रे अधीर मन !


नहीं अकुला अभी से तू , नहीं तो हार जाएगा
अरे तू डर रहा क्यूँ है , धरा तू ही सजायेगा

सहन कर ले जो कुछ आए, तेरे दुश्वारियाँ सम्मुख
यही दौरे दौरा है , यही सब कुछ सिखाएगा

नहीं आए अगर ये मोड़ , जीवन राह अधूरी है
कहाँ किस ग्रंथ में पढ़ कर , तू ये मर्म पायेगा

मिलनें को हैं मिल सकती , तुझे रंगीनियाँ सब सी
मगर बंधुत्व को क्या फिर , तू पहचान पाएगा ?

तड़पने दे तड़पता है, मन , चंचल ये निर्लज्ज
स्वयं को ढूढ़ स्वयं में ही , तभी तू ब्रम्‍ह पाएगा

तू आया ही नहीं जीने , ये भोग भौतिकता
तुझे क्या प्यास जल की है ? नहीं तृप्ति तू पाएगा !

अभी तो है गली सकरी , सिमट जा तू स्वयं मे ही
मगर तू देखना इक दिन , यही विस्तार लाएगा

कदम हैं साथ तेरे क्यूँ , यही चिंतन जो तेरा हो
कहाँ श्रम है कहाँ विश्राम , कहीं तू रुक ना पाएगा

अभी तो सूखता तू है , कहाँ छाले अभी आए
तुझे पाषाण बनना है , तभी बदलाव आएगा

नहीं बस में जो कुछ तेरे , तो बस तू ध्यान धर उसका
अभी तो कर्म कर अपना , जो मिलना है वो पाएगा

नहीं अकुला अभी से तू , नहीं तो हार जाएगा
अरे तू डर रहा क्यूँ है , धरा तू ही सजायेगा

                     उमेश कुमार श्रीवास्तव

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