बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

आह्ववाहन

कब तक बैठोगे तम में तुम
बाट जोहते दिनकर की
तुम दीप जलाओ तो पहले
सूरज तो निकलेगा ही ।

आत्मदीप की आभा में
राकेश तिमिर से लगने लगें
प्रज्जवलित करो तुम आत्म अनल
हिम-तम फिर तो पिघलेगा ही

मन के चंचल इन अश्वों को
इक डोरी में तो बांधो
अधीर हुए क्यूँ बैठे यूँ
मंज़िल पथ तो निकलेगा ही

हैं पथरीली राहें तो क्या
क्या कर लेंगे उतन्ग शिखर
पग अवधारो पहले तो तुम
सुमन राह में बिखरेगा ही

कभी नहीं विचलित होना
कर्म राह से तुम सीखो
इस पार भले मरूभूमि मिले
उस पार सुमन बिखरेगा ही


                     ......उमेश श्रीवास्तव


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