शुक्रवार, 31 मई 2019

जिन्दगी

जिन्दगी

इतनी तो फुरसत दे जिन्दगी
कुछ तो तुझे भी मैं जी सकूं
संग बहता रहा पर मिल ना सका
बिन मिले तू बता, क्या मैं कह सकूं ।

तू सदा से विदेही रही जिन्दगी
बस बही जा रही अनवरत चंचला
मायावी कीच में तू पड़ी ही नही
मै निरा जड़ हूं ठहरा ,उसी में फंसा ।

तनिक तू समय दे ,मुझे साथ ले ले
सिसकता रहूं मैं ,यूं कब तक खड़ा
जानता हूं ,मै ये कि, तू ठहरती नहीं
हो न सकता क्या ये,ले तू मुझको बहा ।

काश ! तू भी बहे संग मैं भी बहूं
मेरी धड़कनो में भी सरगम बजे
भीड़ में खो गया जो अस्तित्व मेरा
तेरी वादियों में वो कुछ,मिल तो सके ।

कभी बरखा रही, सर्द रातें कभी
जेठ की धूप सी तू कभी थी तपी
यूं ही बावरा मैं ,इनसे डरता रहा
मर्म इनका मुझे क्यूं ना समझा सकी

हर घड़ी आज तक मै लड़ता रहा
दौड़ता ही रहा हांफता ही रहा
खुद को खुद ही से मैं दूर करता रहा
बस इसे जिन्दगी मैं समझता रहा

इस कदर थक गया पर जी ना सका
लुफ्त तेरे मौसमों का, न ले मैं सका
यूं न मायूस कर तू ठहर जा जरा
ले लूं तेरी झलक जो , न ले मैं सका ।

ठहर जरा ठहर जरा ऐ जिन्दगी ठहर जरा
गम के घूंट पी तो लूं  तुझे जरा मै जी तो लूं
हो न जाये शेष ये सफ़र ,जीने की संग चाह ले
प्यासा सफर करता रहा,ये अमी भी पी तो लूं ।

उमेश श्रीवास्तव 27.01.2017 जबलपुर

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