सोमवार, 13 मई 2019

अजनबी

अजनबी

उस अजनबी की तलास में
आज भी बेकरार भटक रहा हूँ
जिसे वर्षों से मैं जानता हूँ
शक्ल से ना सही
उसकी आहटों से उसे पहचानता हूँ

उसकी महक आज भी मुझे
अहसास करा जाती है
मौजूदगी की उसकी
मेरे ही आस पास

हवा की सरसराहट सी ही आती है
पर हवस पर मेरे
इस कदर छा जाती है ज्यूँ
आगोश में हूँ मैं, उसके,या
वह मेरे आगोश में कसमसा रही हो

कितने करीब अनुभव की है मैंने
उसकी साँसे,और
उसके अधरों की नर्म गरमी
महसूस की है अपने अधरो पर

उसकी कोमल उंगलिओं की वह सहलन
अब भी महसूस करता हूँ
अपने बालो में
जिसे वह सहला जाती है चुपके चुपके

उसके खुले गीले कुन्तल की
शीतलता अब तक
मौजूद है मेरे वक्षस्थल पर
जिसे बिखेर वह निहारती है मुझे
आँखों में आँखे डाल

पर अब तक तलास रहा हूँ
उस अजनबी को,
जिसेमैं जानताहूँ वर्षों से!
वर्षों से नहीं सदियों से

जाने कब पूरी होगी मेरी तलास
उस अजनबी की
..................उमेश श्रीवास्तव...01.09.1990...

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