सोमवार, 13 मई 2019

मेरी व्यथा

मेरी व्यथा

दुनिया की
तेज रफ़्तार दौड़ नें
(सभ्यता,संस्कृति के विपरीत)
आधुनिकता की ओर
पीछे छोड़ दिया है
मुझे
काफ़ी पीछे
जहाँ से
रास्तो के निशाँ
मिट चुके हैं
गर्दो-गुबार में
जिनके सहारे ही
मैं
उस दिशा की ओर
अग्रसर हो सकता
जिस ओर
जन समुदाय
अपनी रफ़्तार नापने को
गतिमान हुआ था

मैं अब भी
प्राचीर से चिपका बैठा हूँ
गौरवान्वित होता
अपनी वैभव पूर्ण
प्राचीन, खंडहर बनते
सभ्यता के विशाल
प्रासाद से,
शायद यह भूल कि,
यह कलयुग है
जहाँ आज का महत्व है
कल का नहीं

कल के सांस्कृतिक मूल्य
आज पुरातन हो
बू कर रहे हैं
पश्च-गामी समाज को
हर प्रयास
सामान्जस्य का , मेरा
निरर्थक हो रहा
स्वयं को गतिशील करने का

मेरा मोह
(अपनी सभ्यता, सस्कृति का)
मेरा भय
(पिछड़ने का , कट जाने का समाज से)
दोनो का द्वंद
मुझे नज़र आता
कुरुक्षेत्र स्वयं मे ही
जहाँ
नैवैद्य बना
होम कर रहा हूँ
स्वयं को  ही मैं

कब और कहाँ किस तरह
उस बिंदु को पाऊँगा
जहाँ युद्ध और शान्ति में
सामान्जस्य बिठा
गतिशील करूँगा
स्वयं को
समाज मे स्थापित होने को
स्वयं को
सामाजिक जन्तु कहलाने को

                 उमेश कुमार श्रीवास्तव

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