शुक्रवार, 3 मई 2019

मैं चाहता हूँ

मैं चाहता हूँ
खोना , उसी में
सिर्फ़ उसी का हो कर
धरा-गगन के मेल
क्षितिज सा
इकसार हो कर

मैं चाहता हूँ
डूबना , आँखो में
किसी के ख्वाब बन कर
तृप्त करती हों
जो मेरी
चेतना की क्षुधा को

मैं चाहता हूँ
छाँव , शीतल
कुन्तलों के घन
ढके मुझको
सो सकूँ मैं जहॉं
निश्चिंत हो कर

मैं चाहता हूँ
नीर , सूनी आँखो में
किसी की
यादों में , किसी के
स्वप्न ले कर

मैं चाहता हूँ
स्पर्श , संवेदनाओं भरा
ठोकरो से मिले
ज़ख़्मो पर
औषधि लेप बन कर

मैं चाहता हूँ
प्रेरणा , संघर्ष में
इक प्यारी उत्प्रेरणा
पा सकूँ , जिसके सहारे
मंज़िल का दर

मैं चाहता हूँ
पाना किसी को
संपूर्ण , खोजने को
स्वयं को, खो चुका जिसे मैं
राहों में टूट कर

मैं चाहता हूँ
कहना , व्यथा
हिय की
खुल किसी से
स्निग्ध उसके
निश्छल मुस्कुराते
नयन सम्मुख

मैं चाहता हूँ
समर्पण, संपूर्ण
किसी का
जिसको कर दूं
समर्पित स्वयं को
अबोध बन कर

पर चाहतें तो चाहतें हैं
वे मिली कब
किसी को , उस रूप में
तभी तो ,
चाहने की चाह को
मैं चाहता हूँ

...उमेश श्रीवास्तव...

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