शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

मंज़िल की राह




अय पथिक !
क्या सोच रहा ?
बन जड़ यूँ अविचल !
पग बाँध रहे क्या आज ?
आज क्यूँ
होता विचलित पल-पल ?

विचलित हो उद्देश्य त्यागना
पुरुषार्थ नहीं कहलाता
इक नन्ही चींटी के आगे
गज नतमस्तक हो जाता

यह तो जीवन की राहें हैं
ना सुमनो की सैय्या है
इनकी कोमलता की आश
आश की इक मृगतृष्णा है

मिल भी जाएँ चंद पलो की
इनसे गर कोमलता
उद्देश्य त्यागना भाव विभोर हो
होगी तेरी असफलता

चन्चलता की आश न कर
रूप दानवी हैं ये
ये लहरें , नहीं सरिता की
ज्वार समंदर का है

अगर बना ले निज पग तरणी
पतवार बना ले बाहें
है जग में अवरोध कौन सा
रोक लें तेरी राहें

भ्रमित हुआ इनसे अगर तू
ना ठौर कहीं मिलेगी
चट्टानो सा  दृढ़ तू बन जा
ये कदम तेरे चूमेंगी

आज कर रही परिहास तेरा जो
ये मुस्काती कलियाँ
कल तुझसे अभिसार करेंगी
बन जीवन की लड़िया

काम क्रोध पर विजय प्राप्त कर
दृढ़ अनुसासन पा ले
धैर्य धार पग अवधार तू
अपनी मंज़िल पा ले

           उमेश कुमार श्रीवास्तव (०४.०८.१९८९)

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