शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

वेदना



इक दर्द की लहर
सर से पाँव तलक
दौड़ सी जाती है
जब कभी
फागुनी हवा संग , महकती
तुम्हारी याद , चुपके से
समा जाती है
धड़कनो मे मेरे

सरसो के ताजे खिले फूल कहाँ
और कहाँ जर्द होता ये बदन
तुम्हारी यादो में
चारो दिशाओ में फैले ये
पतझड़ को देख
तरस उठता है मन
गुज़री बहारो के लिए

जब दिल जलता है तो
शोलो का उठना लाजमी है
क्या लगता नहीं तुम्हे
देख टेशू , कि
कहीं किसी का दिल
अंगारा हो रहा
तुम्हारी , सिर्फ़ तुम्हारी ही
यादो में

शोलो की अंतिम परिणति
राख है यह जान कर भी
अब तलक दूर कहीं दूर
अनजान किनारो पर तुम
मंद मंद अनिल झोको में
लहराती कुन्तल
अपनी दुनिया में
मुझसे बेख़बर मस्त हो
आलिंगन में बाँधे अपना वर्तमान

जब तुम्हे नहीं आना जीवन में
क्यूँ करती हो खेल
स्वप्नो में आ निरंतर
क्यूँ दिखाती हो मुखड़ा अपना
प्रेरणा का प्रतीक
शांत शौम्य मनोहारी

क्यूँ बधाती हो ढाढ़सें
क्या इसी लिए , कि
यादो में ही जीता रहूं
बस यूँ अकेला एकाकी बन
दर्द के खारे नीर को
जिंदगी भर
पीता रहूं

      उमेश कुमार श्रीवास्तव

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