रविवार, 17 नवंबर 2013

वह गाँधी की "पगडंडी "


वह गाँधी की "पगडंडी "



एक पगडंडी
उस गाँव से भी गुजरती थी
इस देश में
जहाँ अमन था
अहिंसा थी
कुल मिला कर चैन था
और इक स्वप्न था
राम-राज्य का
पर हमने
पहला पग
इस पगडंडी के विपरीत ही
उठाया था
और उचटती निगाह से
जिसमें तिरस्कार का
घोल था
उस पगडंडी को
निहारा था
पर , पगडंडी नें
एक बालक सी
मधुर मुस्कान बिखेर
हमें आशीष दे
शुभ-यात्रा कहा था

आज वह पहला पग
कितना सही था
समझ आ रहा है
हर राही
जब उस पगडंडी की तलास में
दर दर की ठोकरें खा रहा है
पर इस भीड़ में
कंकरीट के जंगलो की
जब उसे ढूँढ नहीं पा रहा है
क्या करे वह ,
इसी भटकन में
और भी भटकता चला जा रहा है
भटकता चला जा रहा है

      उमेश कुमार श्रीवास्तव

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें