गुरुवार, 21 नवंबर 2013

नारीत्व



एक दिवस
इक नव यौवना मजदूरन
अपने कर्म धर्म से
निवृत हो कर
प्रस्थान कर रही थी घर को
कुछ बादल थे आकाश मार्ग पर
अपने साम्राज्य को बढ़ा रहे
ज्यूँ उस नव यौवना पर
मुग्ध हो आज
खिलों की वर्षा करना चाह रहे
उन्हे देख वह नव यौवना
दौड़ पड़ी
सोच अवस्था अपने घर की
उसके उन्मुक्त वक्ष भी
दोलित हो करने लगे वज्र प्रहार
पर उसके मुख मंडल पर
छाई मुस्कानों में
 थी ज्यूँ
इक अनार कतार
इतने में कुछ दुष्ट मानवों का झुण्ड
टूट पड़ा सोच उसे
शावक बच्चा
पर हाय यह थी उनकी भूल
वह थी प्रचंड शक्ति
दुर्गा की जैसे शूल
उसमें भी थी भारत की
नारी की लाज
पर झपट पड़ी छोड़ लाज आज
वह दुश्टों पर
बन क्रुध बाज
और बता दिया क्षण में
क्या होती नारी की लाज
क्षण में ही वे सब
कांप रहे थे
अपनी करनी पर सब
कर पश्चाताप रहे थे
उस यौवना के चेहरे पर
छाई थी इक खूनी लाली
या लग रही थी गुस्से में
 वह , साक्षात माँ काली

         उमेश कुमार श्रीवास्तव

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