रविवार, 17 नवंबर 2013

सरिता


सरिता



धरती का सीना तोड़ फोड़
करती कल कल का मधुर शोर
निकल आती इक सरिता धार
नितांत क्लांत और कमजोर ၊

फिर वह नन्ही सी बाला
पग रखती मंज़िल की ओर
पग पग नई उमँगो के संग
लेती जाती नई हिलोर  ၊ 

आगे आई विपदाओं को
अवरोध बनी बाधाओं को
काट छांट कर आगे बढ़ती
न छूट जाए समय की डोर ၊

पा प्रकृति का रूप श्रृंगार
ममत्व भरा प्रकृति का प्यार
उत्साह उमँगो का संगम हो
दौड़ पड़ी मंज़िल की ओर ၊

जब तक राह रही समतल
तब तक शान्त चंचल निश्चल
जब राह मिली अवरोधित
दिखला देती यौवन का ज़ोर ၊

अनजाने पथ पर चल बढ़ती
अनजानी मंज़िल की ओर
पर जान रही वह, यह सत्य
जाता श्रम पथ मंज़िल की ओर ၊

जब पा जाती मंज़िल का द्वार
वह पा जाती खुशी अपार
सागर के सीने से लग कर
हो जाती भाव विभोर  ၊

सागर सा पी पा कर भी
करती ना अहंकार कभी
सागर के बच्चो को फिर
देने लगती अपनत्व प्यार ၊

            उमेश कुमार श्रीवास्तव

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