गुरुवार, 28 नवंबर 2013

मेरे शेर "कल के"




          १

है रकीबों की दुनिया सम्हल के ही चलना
जाने कहाँ पर मुक़द्दर भी रूठ जाए.

           २

समंदर सी लहरें उठी हैं दिल में
मजमून तेरे खत का, पढ़ते ही पढ़ते

            ३

हर तार मेरे दिल का बिछुडा हुआ सुरों से
सदियाँ गुजर रही सरगम के बिना

             ४

था दिल में मेरे भी इक बुतनसी का अक्स
पर सरकसी नें उसकी मिटा दिया है उसको

              ५

मैं पुकारता हूँ दिल से पर ज़ुबाँ नहीं है चलती
उसकी तंगदिली नें ताला यूँ लगाया

               ६

अश्कों की मेरे ना कोई अहमियत है
आहों नें उसकी तोहमत यूँ लगाई

               ७

किस मुकाम पे लगे , उठ किस मुकाम से
तल्ख़ जिंदगी नें , क्या क्या नहीं दिखाया

                ८

दुनिया की नज़र से छिपते छिपाते
चले आए हैं हम कहाँ से कहाँ तक
मगर राजे दिल अब छिपेगा ना दिल में
नज़र ही नज़र से आएगा ज़ुबाँ तक


                     उमेश कुमार श्रीवास्तव

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