शनिवार, 16 नवंबर 2013

मेरी सम्बल " तुम "




क्यूँ आज प्रिये हो रही उदास
बिखरे क्यूँ हैं ये गेसू
चल रही आज क्यूँ साँस उच्छास
क्यूँ आज  प्रिये हो रही उदास

यह तो जीवन है मृत्यु नहीं
इसमें सब सहना पड़ता है
सुख दुख दो पहलू हैं
हर में हँस रहना पड़ता है

जब तपती है यह धारणी
सूरज गरमाता जाता है
तब ही बरखा की ले फुहार
सावन मस्ताना आता है

फिर तुम क्यो हो रही अधीर
धीरज क्यो खोती जाती हो
पतझड़ के पीले पत्तो सम
तुम क्यूँ कुम्हलाई जाती हो

गर आया है यह पतझड़
इस जीवन की बगिया में तो
इक दिन यही ले आएगा
बसंत के रंगीले फूलो को

देखो इस सरिता धारा को
जो नित आगे कदम बढ़ाती है
क्या देख कभी वह बाधाएँ
पथ छोड़ वहीं रुक  जाती है

देखो बगिया के माली को
जो सदा बाग में ख़टता है
क्या पतझड़ का आगमन देख
प्यार कहीं भी घटता है

है वही सामर्थ पौरुष
जो नित ज्वारो में खेले हैं
है उनका जीवन ही जीवन
जो नित शोलो को झेले हैं

गरमी से तपती धरती पर
जब सावन की बूंदे गिरती हैं
मानव को करती शान्त विह्वल
ताप धरा का हरती हैं

पर यह ही मानव एक दिवस
इनसे भी उकता जाता है
शीत दिवस में ठिठुर ठिठुर
फिर गर्मी की आश लगाता है

यह प्रकृत नियम हैं अटल प्रिये
रोके न रुके हैं कभी कहीं
जो आया है वह जाएगा भी
क्यूँ दिखलाना धीरज की कमी

नारी ही सदा सामर्थ बनी
नारी ही सदा संम्बल है बनी
नारी में हीडूबा है जग ये
नारी ही सदा पुरुषार्थ बनी

नारी के बिना ये नर जीवन
नरको से ज़्यादा बदतर है
नारी की इक हल्की सी प्रेरणा
दुःख में सुख से बेहतर है

बस यही आश मैं लगा रहा
तुमसे भी आज ये प्राण प्रिये
इस बिपति की बेला में भी तुम
साथ धैर्य का रखो प्रिये

अंधकार साम्राज्ञी निशा
बहुत ही ज़ोर लगाती है
पर अरुनोदय के प्रथम चरण से
दूर भागती जाती है

वैसे ही समझो इसे प्रिये
ये क्षणिक मात्र को आई है
क्या कहीं आसुर प्रवृति
इस जग में टिक पाई है

मैं मान रहा हूँ सांध्य इसे
अभी रात अंधेरी आएगी
इससे भी कष्टकर कष्ट मिलेंगे
धारणी भी नीर बहाएगी

पर पुरुषार्थ रहा जिंदा
औ प्रिये प्रेरणा मिली तुमसे
तो वह दिन भी दूर नहीं जब
सुरभि सुमन , पुष्पित होगे इनसे

        उमेश कुमार श्रीवास्तव (१४.१०.१९८७)

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