सोमवार, 2 दिसंबर 2013

छद्म आदर्शों की मारीचिका

छद्म आदर्शों की मारीचिका



इक किरण भी यदि
चमकती है किसी दिशा से
आदर्श के नाम की
तो, आज उस दिशा को ही
लोग पूजने लगते हैं
बिना सोचे विचारे
कि कहीं वह आदर्श की
मृगमारीचिका तो नही

आदर्श हीन दुनिया में
हर प्यासे को
ऐसा होना
प्रतीत होता है
स्वाभाविक सा

आदर्शों का बाजार मूल्य
बढ़ सा गया है
इस शताब्दी तक आते आते
या यूँ कहिए
आदर्श नामक जन्तु
लुप्त प्राय हो चला है
इस मानवीय हाट से


लुप्त होने में , किसी जन्तु के
वहसीपन का हाथ होता है
इंसानी वहसीपन का
वही वहसीपन, आदर्श को ,
खा गई है ,
अस्थि तक चबा गई है

और,
बाज़ारो में आज
मुखौटे बिकते हैं
आदर्शो के, बेढब से
पर, हाय रे इन्सान
तू उन पर भी फिदा है
वास्तविकता को पचा
बनावटीपन से
समझौता करता आ रहा है
दूसरो को ही नही दे रहा
स्वयं भी
धोखा खा रहा है

     उमेश कुमार श्रीवास्तव

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