मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

उद्दीपक हो तुम

उद्दीपक हो तुम

ज्यूँ संपूर्ण करण-कारण
शान्ति को प्राप्त हो गये हों
घटना शून्य हो,नीरव बन गया हो,
जगत !
ऐसा क्यों प्रतीत होता है मुझे,
जब कभी भी तुम
दूर गोचरता से होती हो मेरे


क्यूँ ऐसा पाता हूँ
कि मैं निष्क्रिय हो गया हूँ
या जो कुछ भी कर रहा हूँ,
केवल कल-पुर्जों सा
ज्यूँ संवेदनाओं से, वातावरण के,
दूर का भी रिश्ता न रहा हो मेरा


ऐसा लगता है,
जगत क्रियात्मक शून्यता से
घिर गया हो
विध्वंस भी थम गया हो
मात्र नयन पटल से 
तुम्हारे ओझल हो जाने से
जबकि मैं यह भी जानता हूँ , समझता हूँ
महसूसता हूँ, कि,
तुम और भी सांसो के करीब आ गई हो
इन दिनों
या यूँ कहो
सांसो में समा गई हो मेरे


क्यूँ लेखनी मेरी तुम्हारे सामीप्य में
तुममे ही तिरोहित हो गुम जाती है
जैसे तुम हो तो वह नही
और तुम्हारी दूरियाँ फिर ला देती हैं उसे
समीप मेरे
चल पड़ती है, मुझे ले कर वह
तुम्हारी ओर
ज्यूँ तुम जहाँ मैं भी पहुँचू वहीं


शायद तुम्हारी कोई परम सखी है
लेखनी मेरी
जो नही चाहती व्यवधान
सखी के प्रिय-मिलन में
तभी तो अदृश्य हो जाती है
आते ही समीप तुम्हारे
हमारे मध्य से
और बनते ही दूरियाँ
तुममे और मुझमे
कहीं भी कैसे भी
प्रगट हो फिर चल पड़ती है
ले कर मुझे 
तुम्हारी ओर


फिर उन्ही विषाद के चरणों से
गुजर रहा हूँ तुम्हारे बिना
निर्विकार और निर्लेप,
भाव-शून्य विवर में
फिर विचर रहा हूँ
लेखनी के सहारे,तुम्हे समीप ला
कर रहा हूँ प्रयत्न, निरखने का तुम्हे
महसूसने को तुम्हे समीप अपने
ऐ प्रिय !

     उमेश कुमार श्रीवास्तव

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