सोमवार, 9 दिसंबर 2013

आत्म-पुकार

आत्म-पुकार


जब क्षीण हो चली दुःख की निशा
क्यूँ व्याकुल व्यर्थ हो रहे आर्य
बस बाकी चन्द पगो की दूरी
महकेगी,ले सुगंध, मंद बयार

घनघोर घटायें घटाटोप
जब घूमड़ घूमड़ कर आई थी
तब तुमने मुस्कानो में
अपनी पहचान बनाई थी

तो नयनो में आज तुम्हारे
क्यूँ आँसू भर आए हैं
डगमग डोल रहे, क्यूँ पग हैं
क्यूँ अधर युगल मुरझाए हैं

अब तनिक धैर्य की बात जहाँ
तो क्यूँ अकुलाए जाते हो
सम्मुख ऊषा बेला के यूँ
क्यूँ मुरझाए जाते हो

वह तुम ही थे जिसने अब तक
झंझावत को झेला था
विस्तृत अथाह जल राशि मध्य
तरणी ज्वारो में खेया था

तब आज क्षुद्र इन लहरो पर
क्यूँ हिम्मत हारे जाते हो
चट्टानो को तोड़-फोड़
अब ढेलों से थर्राते हो

चिंता , व्यथा , औ व्याकुलता
हैं असफलता की कुंजी
झटक दूर करो इनको, तुम
पा  लो अपनी  मंज़िल

देखो कुमुद कमल दोनो
स्वागत में मुस्काते हैं
पंछी भी कर मधुर गान
उत्साह आज बढ़ाते हैं

आगम पतझड़ का कभी प्रिये
ना देता हमे सुहाई है
यह ही , अनुगामी बना बसंत को
करता उसकी अगुवाई है

पापिहे का तप ही देखो
जो पीता केवल बरखा जल
क्या तृषा व्यथा से हो व्याकुल
चखता जा गंगा जल

उसके तप से यह धारणी
पा जाती है हरियाली
अपनी तृषा बुझा सभी को 
देती जो खुशहाली

फिर सृष्टि के हो श्रेष्ठ रत्न तुम
अधीर हुए क्यूँ जाते हो
इस तम में हो कर विह्वल
क्यूँ निज पहचान गवाते हो

तम तो छट जाएगा इक दिन
कलंक कभी धुल पाएगा ?
है घुटने टेक गया मानव
जग कण कण यह दुहराएगा

इसलिए आज फिर कहती हूँ
स्व-विवेक पहचानो तुम
मैं हूँ वामा बन "आर्य" साथ
उज्ज्वल लक्ष्य सन्धानो तुम

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

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