बुधवार, 11 दिसंबर 2013

दिलजले शेर

दिलजले शेर
मुझे बदगुमानी थी कि ,देगी वो बोसा
जालिम के लब खुले तो, निकली गालियाँ.

सुबह शिकवा थी उनको , शाम हमसे शिकायत
ना जाने अब क्या चाहती है जालिम .

इक बोसा लिया था मैंने इन अदाओं का
अब तो कम्बख़्त दामन छोड़ती ही नहीं.

थोड़ी जो पी थी हमने नज़रों से तेरी सनम
अब तलक हमको, अपना ख्याल आया नहीं.

तेरी ये अदा ही काफ़ी ,जीने के लिए
बस यूँ ही लब-वो-रुखसार पर तब्बस्सुम खिलने दो.


बदल दो आज तदबीर तस्वीर बदल जाएगी
हमने तो तक़दीर से तस्वीर बदलते देखा है


                                                      
                                                             ......उमेश कुमार श्रीवास्तव

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