गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

निशा(रात्रि)

निशा(रात्रि)

मैने बचपन में तेरी सूरत
प्रकृति के किताबो के पन्नो पर देखी थी
देखी थी शान्त सौम्य , सुन्‍दर
क्लान्ति दूर करने वाली
ममता मई गोद तेरी
तू कितनी प्यारी लगती थी
अय मेरी आदर्श निशा

तब मैं शायद तेरी सुन्दरता का 
तेरी उस गोद का
उपयोग नहीं जानता था
तभी तो भयभीत हो कर
तुझसे दूर भागता था

पर आज जब मैं युवा हूँ
मुझे तेरी आवश्यकता है
तो सूरत ये बदसूरत क्यूँ हो गई
मैं तो अजनबी सा
निहारता रहा तुझे , कि क्या
वही प्रकृति की किताबो वाली
तू मेरी निशा है

तेरा वह शान्त व सौम्य रूप
सब तो खो गया है
आख़िर तुझे क्या, आज
हो गया है
तेरी वह शान्त छवि
अशान्त सी क्यूँ लगाने लगी है
चिल्ल-पों शोर में
जान ही निकलने लगी है
तेरा वह निरापद साम्राज्य
क्यूँ चकाचौंध हो चला है
खटपट फटफट में
सन्नाटा भी बोर हो चला है

मैं अब भी तलास में हूँ
अपने बचपन वाली उसी निशा की
इक बार तू ही बता दे
क्या कहीं मिल सकेगी वो
या यूँ ही भटकता रहूँगा
तलास में अपनी
किताबो की निशा की

                उमेश कुमार श्रीवास्तव

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