सोमवार, 2 दिसंबर 2013

स्वप्न

स्वप्न

यह जीवन भी स्वपनो का
पर्याय लगता है सारा
हम दिन प्रति दिन
अच्छे बुरे सपनो में ही तो
डूबते उतराते रहते हैं
 और कभी कभी
बिन स्वप्न ही सो जाते हैं
चुपके से


हम सदा अच्छो की ही
आश लगाए बैठे रहते हैं
दिन के किनारे
पर सदा इच्छित होने लगे
तो वे स्वप्न ही कहाँ
वे तो आते ही हैं
स्वयं की शक्तियो से
स्मृतियो में , और
भाग्य बन रह जाते हैं ,
जीवन में
हम चाह कर भी
बच नही पाते
खिचे चले जाते हैं
दिन प्रति दिन उनकी ओर

बुरे के भय से
छिपा रखना चाह कर भी
स्वयं को
छिपा नही पाते
वे सर्वव्यापी जो ठहरे
वो व्याप्त हैं सर्वदा से सर्वत्र
यहाँ तक की
हमारे मन मस्तिष्क में भी
फिर कहाँ तक
छिपा सकेगें स्वयं को
इन स्वप्नों  के दृष्टि पथ से

हम कितने निरीह हो जाते हैं
कुछ कर नही पाते हैं
जब वे आने से भी
लगते हैं कतराने
और हम गूंगे बहरे
तड़पते रह जाते हैं
जीवन में बस इन्ही
स्वप्नो के लिए

         उमेश कुमार श्रीवास्तव

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