मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

क्रूर यथार्थ

क्रूर यथार्थ

उसके घर
एक,बच्चा जना था
कृष्णांग 
बलिस्त भर का
दुबला पतला
उसकी भूखी सूखी
जनानी नें
मौत के मुख से 
निकल कर

वह खुश था
बहोत खुश
कि उसे नज़र ही न आई थी
अपनी जनानी की
जर्जर काया
हल्दी चुपडा
विभत्स चेहरा

उसकी सोचो ने
रफ़्तार पकड़ ली थी
वह ख्वाबो में
उड़ा जा रहा था
खुली आँखो
कि कल वह बड़ा होगा
और मेरे कंधे से कंधा मिला
मेहनत करेगा
दो जून की रोटी को
और
गृहस्थी की गाड़ी को
नया ईंधन देगा
जो कई दिनो से
बिना ईंधन
मरम्मत के
जर्जर हो चुकी थी
आएगी समृद्धि !

तभी किसी ने उसे
खींचा
धरातल पर, कि,
उनकी गृहस्थी में
अब वह,सिर्फ़ वह
रह गया है,
शेष,
देखने को
स्वप्न
         उमेश कुमार श्रीवास्तव

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