मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

रेगिस्तान

रेगिस्तान

पलको के भीतर
हर पल
इक किताब लिखता रहता हूँ
सपनो की,
जिसके हर पन्नो के
हर अक्षरो पर
हरियाली की छाप होती है
ओस की बूँदे होती हैं
हर पात्र के चेहरे पर
इक चमक होती है
संतुष्टि की
हर्ष की

इस किताब के हर पात्र
मुझे इस किताब से ही प्यारे हैं
मैं सोचता हूँ शायद
इस जग में मैने,बस
इन्ही के लिए आँखे खोलीं है
और शायद यह किताब भी 
इन्ही की है

पर,
पर इन पात्रों का अनुभव
शायद अनुभव ही बन कर रह जाएगा
क्यूँ की जब
इनके सुख दुःख का हिस्सा
बनने की सोचता हूँ
तो आँखे खोलनी पड़ती हैं
और खुली आँखो में तो
इक रेगिस्तान नज़र आता है
इक अथाह,अगम्य रेगिस्तान
शुष्क रेगिस्तान

                उमेश कुमार श्रीवास्तव ३१.१२.१९८९

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