बुधवार, 4 दिसंबर 2013

जड़ का चिंतन

जड़ का चिंतन

कितना बेबस
नितान्त अकेला
चुपचुप
खड़ा निहारता
यह ग्लानि भरा वृक्ष
कसमसा रहा है
या पश्चाताप करता
चिंतन में हो लीन
अपने दुर्दिन पर
अपने कर्मो को
निहार रहा है

काश उसने भी , रक्षार्थ
प्राणी मात्र की
भीष्म प्रतिज्ञा न ली होती
तो आज इस कृतघ्न प्राणी से
अपनी सेवाओं का प्रतिफल
अवश्य लेता
क्यूँ कि उसने ये आज जाना
निष्काम सेवा, मानवो की,
जड़ की निशानी है
उसकी सभी परिभाषाएँ
आज पुरानी है

काश उसने भी
विरोधी रुख़ अपनाया होता,तो
बुद्धिजीवियों की पंक्ति में
खड़ा मुस्काया होता
न कि यूँ अपने अनुजो के
विछोह में
यहाँ सिसकता यूँ खड़ा होता

          उमेश कुमार श्रीवास्तव

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें