मंगलवार, 10 सितंबर 2013

कर चिंतन,रे मन

क्या तुम कभी अपने पास आए थे स्वयं को भी लुभाए थे
यदि नही तो आ जाओ स्वयं के भीतर झाँक कर उसे लुभाओ 
देखो कहीं कोई दरकन तो नही है, टूटन तो नही है, गंदगी तो नही है, बुराई तो नही है 
जिन नरम तंतुओं से गढ़ा था तुझको उसमें कोई कड़ाई तो नही है.
फिर लुभाओ खुद को पहुचने को उसके पास
कर सको तो कर लो नहीं तो दूसरो को भी लुभाना छोड़ दो
खुद से भले दूर रहो पर खुद को दूसरो से भी दूर रखो
जिओ और जीने दो


जो गुण रहित है, कामना रहित है, निरंतर वर्तमान है, जिससे स्वम को पृथक नही किया जा सके जो अत्यधिक सूक्ष्म है उसे केवल अनुभूतिओं से जाना जा सके वह प्रेम है 


मेरे जेहन में जीवन संगनी की जो तस्वीर है वह औरत की वफ़ा और त्याग की मूर्ति है, जो अपनी बेजबानी से, अपनी कुर्बानी से, अपने को बिल्कुल मिटा कर पति के आत्मा का एक अंश बन जाती है, देह पुरुष की रहती है पर आत्मा स्त्री की होती है, आप कहेंगे मर्द अपने को क्यो नही मिटाता ?औरत से ही क्यों इसकी आशा करता है ? मर्द में वह सामर्थ ही नही है, वह अपने को मिटाएगा तो शून्य हो जाएगा, वह किसी खोह में जा बैठेगा और अह्न्कार मे यह समझ कर कि वह ज्ञान का पुतला है सीधे ईश्वर में लीन होने की कल्पना करेगा, स्त्री पृथ्वी की तरह धैर्यवान है शांति - संपन्न है सहिष्णु है , पुरुष में नारी के गुण आ जाते है तो वह महात्मा बन जाता है , नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वह कुलटा हो जाती है , पुरुष उसी स्त्री की ओर आकर्षित होता है जो सर्वान्स में स्त्री हो , संसार में जो कुछ सुंदर है उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँ , मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि उसे मार ही डालूं तो प्रतिहिंशा का भाव उसमें न आवे , अगर मैं उसकी आँखो के सामने किसी स्त्री को प्यार करूँ तो भी उसकी ईर्ष्या न जागे, ऐसी नारी पा कर मैं उसके चरणों में गिर पड़ूँगा और उस पर अपने को अर्पन कर दूँगा....प्रेमचंद...गोदान.....


ॐ असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय , मॄत्योर्मा अमॄतं गमय।
O Lord! Lead me from the untruth to truth, darkness to light and death to immortality.



धनाढ्य होने के बाद भी यदि लालच और पैसों का मोह है, तो उससे बड़ा गरीब और कोई नहीं हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति 'लाभ' की कामना करता है, लेकिन उसका विपरीत शब्द अर्थात 'भला' करने से दूर भागता है।


जिस प्रकार पशु को घास तथा मनुष्य को आहार के रूप में अन्न की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार भगवान को भावना की जरूरत होती है। प्रार्थना में उपयोग किए जा रहे शब्द महत्वपूर्ण नहीं बल्कि भक्त के भाव महत्वपूर्ण होते हैं।


“जो जिसके मन में है, वह उससे दूर रह कर भी दूर नहीं है और जो जिसके मन में नहीं है, वह उसके समीप रह कर भी दूर है


गुण छोटे लोगों में द्वेष और महान व्यक्तियों में स्पर्धा पैदा करता है |


“We are what our thoughts have made us; so take care about what you think. Words are secondary. Thoughts live; they travel far.” - Swami Vivekananda

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें