गुरुवार, 5 सितंबर 2013

कर्मयोगी

कर्मयोगी 


चिलचिलाती धूप
दावानल सी फैली हुई
रेंगते से तन
प्राणियों के
भटकते, इधर उधर
जिजीविषा की चाह ले
जलती हुई जल बिन


कलरव विहीन दरख़्त
पथिक से सूनी छाँव को सज़ा
पलक पाँवड़े बिछा
निरखते पथ
वीरान से जो पड़े


शुष्क सरिता
आँचल में समेटे रेत बालू
पत्थरों के टूटे कण
देखती है राह, कब
कल-कल,कर बहेगी
वेग ले बरखा जल धार का


पर
कर्म राह का इक पथिक
है जुटा
मरु भूमि सी तपती
धरा के उस खंड पर
जिस पर कभी उसने उगाई थी
फसल,
कर्म के पथ पर अकेला चल


ना चाह उसकी ,कि
उसे कब क्या मिलेगा
ना आश उसको
झट कोई सुमन खिलेगा


पर यह जताना चाहता आदित्य को
कि तपन बस उसमे नही
उसमे भी है
तप कर ही निखरता स्वर्ण तो
तपने की चाहत
बस उसमे ही नही
उसमे भी है

ज्यूँ प्रण किए हो
वह धरा के धूल कण से
लिपटा हुआ
तेज के श्वेद सागर मे समा
 धरा की हरीतिमा को
अपने तप से
हर हाल में छीन वापस लाएगा
वह प्राणियों के प्राण को
चैतन्य करने
रवि तेज से भी
नीर बहा ले आएगा

उमेश कुमार श्रीवास्तव

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