गुरुवार, 5 सितंबर 2013

मेरे अपने आदर्श

जिस व्यक्ति नें अंतःकरण की आवाज़ सुन स्वयं अवरोध का वरण किया है,वह स्वमेव निर्मल हो जाता है ,किसी पर बाह्य अवरोध लगा सुधारने का प्रयास क्षणिक सफलता तो पा सकता है शुद्ध व स्थाई निर्मलता नहीं......उमेश



जब हम क्रोधावस्था में होते है तो लोगो से हमारे दिल की दूरियाँ बहोत बढ़ जाती हैं यही कारण है कि क्रोधित व्यक्ति ज़ोर ज़ोर से बोलता है. किंतु जब हम शांत अवस्था में होते हैं तब दिल लोगो से सामान्य दूरी पर रहता है अतः उसे दूसरे दिल तक अपने विचार संप्रेषण हेतु ज़ोर से बोलने की आवश्यकता नही पड़ती वह सामान्य आवाज़ में ही दूसरे दिल तक अपनी संवेदनाओं का संप्रेषण कर सकता है.इन सब से विपरीतजब दिलो में प्रेम भरा हो तो दिलो की नज़दीकियाँ इतना अधिक होती है की उन्हे शब्द स्वरो की भी आवश्यकतानहीं रह जाती वे अपनी बातें कुछ बोले बिना भी एक दूसरे तक पहुचाने में सफल रहते है. प्रेम मे शरीर का हर अंग संवाद संप्रेषण का कार्य करता है......उमेश



सभी अपने अपने कर्मों के फल भोग रहे हैं इस भोग लोक में, परमात्मा कर्म बंधन में गूँथ कर जीव को इस लोक मेंसृष्टि के आरम्भ मे. छोड़ दिए है जीव जैसे कर्म करेगा वैसा फल उसे मिलेगा जिसे इस जीवन में उसे भोगना है अच्छे कर्म का अच्छा फल बुरे कर्म का बुरा फल . यदि कुछ कर्मों के, चाहे वो अच्छे हो या बुरे फल भोगने से इस जीवन में रह जाते हैं तो उन्हे भोगने हेतु पुनः जन्म कर्मों के फल के अनुरूप जीव को लेना पड़ता है, इसमे परमात्मा का किसी प्रकार का कोई अवरोध या अनुकम्पा नही होती ईश्वर आराधना पूजा पाठ या जितनी भी विधियाँ विभिन्न धर्मो में ईस्वारी कृपा पाने की प्रचलित हैं उनके मध्यम से हमें केवल सच्चा मार्ग, जीवन जीने का व सत कर्म करने की ईश्वरीय प्रेरणा के माध्यम से प्राप्त होती है किसी प्रकार की भौतिक वस्तु धन दौलत ऐस्वर्य इनके मध्यम से ना कभी मिला है ना कभी मिलेगा कर्म बंधन को ईश्वर भी सृष्टि आरंभ के उपरांत से ना तो तोड़ सका है ना ही तोड़ेगा अन्यथा वह सृष्टि के सम्मस्त प्राणिओ का सम दृष्टि रखने वाला पिता कैसे कहलाएगा वह धृतराष्ट्र न बन जाएगा.......उमेश


यदि पहली ही मुलाकात में कोई आप को आवश्यकता से अधिक महत्व दे तो , या तो इसमें उसका कोई निहित स्वार्थ है , अथवा वह आपको मूर्ख बनाने का प्रयत्न कर रहा है .........उमेश


मेरे जेहन में जीवन संगनी की जो तस्वीर है वह औरत की वफ़ा और त्याग की मूर्ति है, जो अपनी बेजबानी से, अपनी कुर्बानी से, अपने को बिल्कुल मिटा कर पति के आत्मा का एक अंश बन जाती है, देह पुरुष की रहती है पर आत्मा स्त्री की होती है, आप कहेंगे मर्द अपने को क्यो नही मिटाता ?औरत से ही क्यों इसकी आशा करता है ? मर्द में वह सामर्थ ही नही है, वह अपने को मिटाएगा तो शून्य हो जाएगा, वह किसी खोह में जा बैठेगा और अह्न्कार मे यह समझ कर कि वह ज्ञान का पुतला है सीधे ईश्वर में लीन होने की कल्पना करेगा, स्त्री पृथ्वी की तरह धैर्यवान है शांति - संपन्न है सहिष्णु है , पुरुष में नारी के गुण आ जाते है तो वह महात्मा बन जाता है , नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वह कुलटा हो जाती है , पुरुष उसी स्त्री की ओर आकर्षित होता है जो सर्वान्स में स्त्री हो , संसार में जो कुछ सुंदर है उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँ , मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि उसे मार ही डालूं तो प्रतिहिंशा का भाव उसमें न आवे , अगर मैं उसकी आँखो के सामने किसी स्त्री को प्यार करूँ तो भी उसकी ईर्ष्या न जागे, ऐसी नारी पा कर मैं उसके चरणों में गिर पड़ूँगा और उस पर अपने को अर्पन कर दूँगा....प्रेमचंद...गोदान.....
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