गुरुवार, 5 सितंबर 2013

सत वचन



कोई काम शुरू करने से पहले, स्वयम से तीन प्रश्न कीजिये – मैं ये क्यूँ कर रहा हूँ, इसके परिणाम क्या हो सकते हैं और क्या मैं सफल होऊंगा. और जब गहरई से सोचने पर इन प्रश्नो के संतोषजनक उत्तर मिल जायें,तभी आगे बढें


-किसी भी कार्य को प्रारंभ करने पहले यह आत्ममंथन करना चाहिए कि हम उसके लिये या वह हमारे लिये उपयुक्त है कि नहीं। अपनी शक्ति से अधिक का कार्य और कोई वस्तु पाने की कामना करना स्वयं के लिये ही कष्टदायी होता है।
जो पहले निश्चय कर के फिर कार्य का आरम्भ करता है ,कार्य के बीच मे नहीं रुकता ,समय को व्यर्थ   नहीं जाने देता और मन को वश मे रखता है ,वही पंडित कहलाता है !..... विदुर


जो विश्वास पात्र नहीं है उसका तो विश्वास करें ही नहीं ,किन्तु जो विश्वासपात्र है उस पर भी अधिक विश्वास ना करें !..... विदुर



मिटटी के बंधन से मुक्ति पेड़ के लिए आज़ादी नहीं है
.... रबिन्द्रनाथ टैगोर
हरि बिनु तेरो को न सहाई।
काकी मात-पिता सुत बनिता, को काहू को भाई॥

धनु धरनी अरु संपति सगरी जो मानिओ अपनाई।
तन छूटै कुछ संग न चालै, कहा ताहि लपटाई॥

दीन दयाल सदा दु:ख-भंजन, ता सिउ रुचि न बढाई।
नानक कहत जगत सभ मिथिआ, ज्यों सुपना रैनाई॥
जगत में झूठी देखी प्रीत।
अपने ही सुखसों सब लागे, क्या दारा क्या मीत॥

मेरो मेरो सभी कहत हैं, हित सों बाध्यौ चीत।
अंतकाल संगी नहिं कोऊ, यह अचरज की रीत॥

मन मूरख अजहूँ नहिं समुझत, सिख दै हारयो नीत।
नानक भव-जल-पार परै जो गावै प्रभु के गीत

तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर।
जल में उल्टी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर।

शरीर तो कर्म के फल के नियंत्रण में है पर मन को भगवान की भक्ति में लीन रखा जा सकता है। जैसे जल में उल्टी नाव को रस्सी से खींचा जाता है वैसे ही मन को भी खींचना चाहिए।
जब मैं था तब हरि‍ नहीं, अब हरि‍ हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।
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