बुधवार, 4 सितंबर 2013

मैं और मेरी तन्हाई



एकान्त : निःशब्द,निर्जन




निःशब्द 
अकेले
एकांत में
बैठ
करने को चिंतन 
करता है मन
क्या है जीवन ?

दिग्भ्रमित
दिगम्बर
प्रश्नो के अम्बार
जब जब
लज्जित कर देते
अन्तस

तम की गहराती
माया
ढक लेती है
काया
और
डूबने सी लगती हैं
साँसे

उजास की आश में
तड़फडा उठता है
तब मन
हीक सी उठती है
पिंजर को छोड़
भागने को उतावले
प्राण में

अपान,व्यान,उदान
व समान
निश्चल हो जाते हैं
शब्दाडंबरो से घिर,
आत्मा लुहलुहान हो
कराह उठती है,
शोर में
भौतिकता की दौड़ में

हाँफता सा शरीर
टूट कर बिखरने को
हो उठता है
बेकल
तब,बचता है
इनको
फिर से सम्हालने
सजोने व सवारने को
शायद, वही
निःशब्द,
निर्जन, एकान्त

जहाँ जाने को
पग द्वय
बढ़ जाते हैं
अकेले ढोते हुए से
तन

इसलिए निःशब्द
अकेले,
निर्जन एकान्त में बैठ
करने को चिंतन
करता है मन

पर मिलता नही
इस कंकरीट के वनो में
ओ निर्जन एकान्त
जिसे
ढूंढता है मन
करने को चिंतन

...उमेश श्रीवास्तव....












कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें