रविवार, 8 सितंबर 2013

दो मानव की परिभाषा




तुमने देखी होगी बूँद समाते सागर में
हमने बूँदो में सागर सिमटे देखा है

तुम मुग्ध हो रहे उन्मुक्त हँसी सरिता की देख
हमने चट्टानो को नीर बहाते देखा है

समीर त्रयी में मुस्काते बैठे तुम उपवन में
हमने तो अनल ज्वाल में उनको पलते देखा है

तुमको क्षुधा सता जाती होगी फल फूलो जिस्मो की
हमने उनको भूखे नंगे आते जाते देखा है

अब तुम्ही कहो क्या तुमने पाँव धरा पर रखे कभी
हमने उनको वसुधा-तनय बना सदा देखा है

क्या कहूँ कहाँ रही अचरज में पड़ने की जिज्ञासा
ये दुनिया कितनी बिखर रही दे दो मानव की परिभाषा

                       उमेश कुमार श्रीवास्तव

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