गुरुवार, 12 सितंबर 2013

मेरी स्वप्न सुंदरी


अय चाँद, रश्मि तेरी
सकुचाती , शरमाती , झिझक-झिझक
अपने स्पर्शों से
पुलकित कर जाती थी
मुझको उस निशा मध्य

मेरे अंको को अपने अंक मध्य
छिपा कहीं ले जाती
स्वर्गीय भूमि मध्य,
उसका वह अद्भुत स्पर्श !
अपने जीवन को मैनें
जिया था शायद उसी निशा

अय चाँद तेरी चाँदनी का
वह अनछुआ स्पर्श
स्मृतिओ में ताजा
अमिट निशानी छोड़ गया है

मेरे अधरों पर उसके चुंम्बन
शीतलता के प्रतीक बने
अब भी अंकित हैं
प्रेम रशों की गूँज
अनुगूंजीत है कर्णपटों पर
अब भी मेरे

अब भी सासों में मेरी
स्फटिक सुंदरी की गंध रची है
उसकी अद्भुत काया में
अब भी मैं खोया रहता हूँ

इन्ही कारकों मध्य फँसा अब तक
ना चक्षु पटल खोल सका हूँ
कि स्वप्न मेरा, बस स्वप्न न ठहरे
जो पलकों के बाहर,
टकरा जाए , यथार्थ के पाषाणओं से
और बिखर जाए,
काँच की गिरी मूर्ति सी
मेरी स्वप्न सुंदरी
चंद्र-रश्मि
भरी दोपहरी

      उमेश कुमार श्रीवास्तव

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