गुरुवार, 5 सितंबर 2013

मैं सोचता हूँ

मैं सोचता हूँ


मैं सोचता हूँ
क्या आज दायरा
नकारात्मक सोचों का ही
विस्तृत होता जा रहा है

दृष्टि के अंतिम छोर से
श्रवण के अंतिम छोर तक
बस नकारात्मकता का ही
विस्तार नज़र आता है

सोच की नकारात्मकता
कर्म से मिल कर
ऐसा नृत्य कर रही है
कि , जीवन का हर क्षेत्र
अतिवाद की सीमा तक
विस्तार पा चुका है
सकारात्मकता व सृजन से
कोसों दूर जा चुका है

खबरों की नकारात्मकता नें
समाज को सनसनी का शहर
बना दिया है
जहाँ आदर्श, रिश्तों की मधुरता
शुष्क हो चली हैं
या यूँ कहा जाए
सहरा की नहर हो चली हैं

लोगों की संवेदनाएँ
इतनी विद्रुप हो चुकी हैं कि,
किसी का दारून रुदन भी
लोगों की आजीविका का
या यूँ कहें कि,विलासिता का
औजार हो चुका है

विभत्स मौतें
चीत्करते कमसिन,और
नारित्व का ओज
सब में बाजारूपन
उनसे भी अर्थ का अर्जन
सोच का माध्यम, जब बन जाए

भूखे की भूख व टन का उघड़ापन
पीड़ित का दर्द व ग़रीबों की आह भी
जब ओठों पर मुस्कान जगा जाए
तो क्या मानें क्या जानें
क्यूँ ना मजबूर हों सोचने को
कि ,
क्या नकारात्मकता की सोच
इस तरह व्याप्त हो गई है
कि रिस्तो का अपनापन
नातो की गर्माहट
सब सर्द हो चुकी हैं
भौतिकता की चाह
मनमाफ़िक जीने की ललक ने
इस कदर हमें झझोड़ दिया है
कि हमने मानव होने का मानक भी
नकार दिया व तोड़ दिया है

उमेश कुमार श्रीवास्तव

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