मंगलवार, 24 सितंबर 2013

अनुभूति



अनुभूति 



मैने देखा है
नित होते
एक समर
जिजीविषा के निमित्त
विभीषिका जिसकी
उद्धवेलित कर देती मन को
चित्त, विकृति के कगार पर
डगमग डगमग
डोल डोल कर
भयभीत पीत बदन के संग
संतुलित स्वयं को करता
अस्तित्व के निमित्त
स्वयं की

मैने देखा है, रुदन,
दर्द के गीत
हर पल हर क्षण
विह्वल हो हो,
रुधिर सरिता नयनो से झरती
कांतिहीन चेहरों को
तड़ाग सदृश्य बनाती
डूबी आकांक्षाओ की तरणी
एक नहीं , अनगिनत
जिसमें

मैने देखा है
अधर पुष्प को कुम्हलाते
मसले पुष्पों पर ज्यूँ
रवि की निष्ठुरता
बरसी हो,
उनकी पंखुड़ियाँ सूखी
काँटों से भी तीव्र
चुभन अब करती ,
पर मजबूरन
शृंगारिक आभाष निमित्त
उनको अधरों पर धरते

और सुनी है
सरगम के पीयूष स्वरों में
एक चीख !
वातायन से
प्रतिध्वनित हो रही
टकरा टकरा अपना सर,
कुछ रोती कुछ गाती सी
ज्यूँ करती, भेद्य दिशा की
अथक खोज
स्वतंत्रता निमित्त

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

www.hamarivani.com

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