मंगलवार, 10 सितंबर 2013

पहाड़ी फूल सी 'तुम'




तुम हाँ तुम
उस पहाड़ी फूल की मानिन्द
उत्परेरित करती रहती हो
मुझे सदा
जो शोषित करता है
चट्टानों के रस
मैदानों की मृद मृदा रस छोड़
उतुन्ग शिखर पर जा
और अपने चेहरे पर सदा
इक ओज लिए
मुस्कुराता रहता है
ज्यूँ कह रहा हो
सहज जीवन भी कोई जीवन है
जीवन तो कला है
विषमताओं में ,हास्य लिए,जीने की


मेरे पग जो लड़खड़ाने लगते हैं
उस शिखर को लख , जिसे
माना है मंज़िल ,मैने
राहों में जिसकी
अनगिनत सुरसाएँ खड़ी है
लीलनें को मुझे
पर उपेक्षा करने लगता है मन
ज्यूँ हो ही न उनका कोई अस्तित्व
अवलंबन पा लेता है जब, तेरा वो


लगता है ज्यूँ
इक लावा सा दौड़ता हो
धमनियों में
और रखने लगता हूँ मैं
ज्यूँ फिर फूलों पे कदम

हर पड़ाव की थकन ,जैसे
मिटा  देता है उसका दर्शन
वैसे ही तुम ,आ स्मृतियों में
नज़दीक ला देती हो
मंज़िल को , दो कदम


उसकी झलक जहाँ बुनियाद गढ़ती है
सतत संघर्षों की
वहीं तुम्हारी याद
मंज़िल तैयार कर देती है
हर राहों पर मेरे


मैं आज जहाँ भी हूँ
वहाँ मैं नहीं 'द्धय' तुम हो
मैं तो आभासिक छाया हूँ
असफलता या कि सफलता की

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

                    

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