रविवार, 15 सितंबर 2013

मानवीय गुणो के पतन का मूल कारक

                    उद्वेग की प्रचूरता कितना व्यथित कर देती है। चिंतन को ,कुंठा की सीमा तक ला बावला सा बना देती है। कभी कभी जब चिंतन की धाराएँ हिलोरें लेने लगाती हैं , अन्तःचेतन में और कुछ नवीन विचारो  की पृष्ठिभूमि रचनें  लगती हैं मस्तिष्क पटल पर , उद्वेग की अधिकता और भोग इन्द्रियो का दुरूह आग्रह भटका देता है ,एक अंधड़ सा मचा उन्हें अपने गंतव्य तक पहुचने के पूर्व।  उस भयंकर अंधड़ के जन्म लेने के पूर्व विवश कर देता है , उस नवीन विचारोँ  के अनबूझ अनजाने भ्रूण को स्व -हनन हेतु।
                       भोग -इन्द्रियो का शमन कितना दुरूह कार्य है , इसे भोगने वाले का मन मस्तिष्क ही जान  सकता है। दूसरो को इसकी जानकारी शब्द -रचनाओं के माध्यम से सम्प्रेषित किया जा सकना असंम्भाव्य है। ये भोग इन्द्रियां संतोष की सीमा रेखा तक कभी पहुँच भी पाती हैं , ऐसा प्रतीत तो नहीं होता। असंतुष्ट अपूर्ण कामनाएं कितना बवंडर सा उठाती हैं मन मस्तिष्क में , इनको अभिव्यक्त किया जाना किसी बाह्य यान्त्रिकी से सम्भाव्य  नहीं है। मात्र भोक्ता का मर्म-स्थल ही इसकी पीड़ा समझ जान सकता है। भोग इंद्रियो के माध्यम से भोक्ता कभी उद्दीपको या कारको का भोग कर सकता हो या नहीं किन्तु इन भोग इन्द्रियो द्वारा स्वंम भोक्ता का भोग अवश्य कर लिया जाता है। दीमक सा चाट जाती हैं ये , दुश्चिंता बन भोक्ता के चिंतन , आत्मा व् काया  को।
                        त्याग के भाव से ही भोग करना चाहिए , क्योँ कि जगत का सर्वस्व ब्रह्म लीन है। यह वाक्य यद्यपि मन चित्त को सुखद व् सांत्वनाप्रद अवश्य लगते हैं , पर आज के भौतिक युग में जहाँ एक ओर सर्व सुखो से पूरित सन्तुष्ट जगत को देख , स्वयं के अभाव की कुण्ठा जन्म लेती है।  वहीँ यह , इन इन्द्रियो को उद्दीपक बन उद्दीप्त कर देती है और जो कुछ भी अपना है उसे मात्र स्वयं का समझ उसे भोगने की इच्छा जाग्रत हो उठती है।
                         जिस किसी पर अपनत्व आरोपित कर उसे भोगा  जावे उससे लगाव का होना भी सहज प्रतिक्रिया  होती है। उस लगाव का प्रतिफल प्रति लगाव के रूप में ,इस स्थिति में आ ढूढ़ना भी सामान्य मानव प्रकृति है। जिसमे आया क्षणिक ,तुक्ष अवरोध भी अनेक दुखद परिवेश का निर्माण कर देता है। अन्तःस्थल में बसा सच्चा लगाव उस पर से अपना मोह समेटने में भी असमर्थ हो कुंठा का शिकार होता जाता है। जिसका आधिक्य ही संभवतया उद्वेग के रूप में जन्म लेता है और मिटा देता है मानवोचित स्वाभाविक प्रकृति को ,स्वभाव को।
                          कितनी दुखदाई होती है वह पीड़ा जब दो ध्रुवो के समान आकर्षण में फंसा व्यक्तित्व , किसी एक की ओर भी खिंच नहीं पाता ,अधर में त्रिशंकु सा लटक जाता है। उस उद्दीपक का लगाव जिसने कि दूसरे से विकर्षित किया है जब विकर्षण ही अदा करने लगता है, स्वतः तक पहुचने देने , स्वयं में लीन होने देने में भी जब अवरोध उत्पन्न करने लगता है। तभी इस दुखदाई परिस्थिति का जन्म होता है। यही परि स्थिति उस परिवेश को जन्म देती है जिसमे फंस सामान्य व्यक्तित्व असामान्यता की ओर अग्रषित हो जाता है। जिसकी परिणति किसी तम  -विवर में खो कर अपना अस्तित्व मेट देना होता है। जो मानवीय गुणो  के पतन का मूल कारक है।
                                                           
                                                              उमेश कुमार श्रीवास्तव
                                                               दिनांक : १४. १० १९९५    .





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