गुरुवार, 5 सितंबर 2013

आत्म मंथन

आत्म मंथन


तरंगे उठती हैं
ज्वार-भाटों सी कुछ-कुछ
कभी स्थिर नही रहने देती
जो जिन्दगी को

कभी अनुभव करता हूँ
स्वयं को
उच्चतम शिखर पर
जहाँ सभी कुछ
मनोहारी प्रतीत होता है
चक्षु शीतलता की अनुभूतियाँ करते हैं
कानो में निश्च्छल स्वर लहरी बज उठती है
औ सांसो में चंदन महक उठता है
मन तृप्त सा हो जाता है .

जग की मोहमाया से लिप्त
यह भौतिक जीवन
वास्तव में नश्वरता की
अनुभूति से भर देता है
मस्तिष्क को
लगता है मेरी मोक्ष की तलास
पूरी हो चुकी है

सभी मे मैं स्वयं को अनुभव करने लगता हूँ
औ समस्त जड़ चेतन
मुझी में समाहित से दिखाई देते हैं
यह सामंजस्य
स्वयं का स्वयं से ही
कितना अद्भुत होता है
क्यूँ की वहाँ 'मैं' कहाँ होता है
केवल औ केवल
एक पिंड होता है
जिससे अलग जड़ चेतन
किसी का कोई
अस्तित्व ही नहीं लगता
और मैं विलीन होने लगता हूँ
उस अनन्त अभेद्य
अक्षर, ब्रम्‍ह में

पर क्षण भर में ही
प्रकृति की शाश्वातता
चुभने सी लगती है
आत्मा फिर उसी आवरण से
ढकने सी लगती है

अब मैं भाटे पर होता हूँ
प्रकृति के नियम की छाया में
इस भौतिकता के अन्तह्तल में कहीं
खो जाता हूँ मैं
एक ऐसे तल में
जो अतल सा प्रतीत होता है
क्यूँ कि वहाँ टिक कहाँ पाता हूँ
निरन्तर
नीचे और नीचे
फिसलता पाता हूँ स्वयं को
फिर कैसे कहूँ
किसी तल की अनुभूति
होती है मुझे

कभी परिवार , कभी समाज ,
कभी देश कभी राष्ट्र
कभी संस्कृति औ सभ्यता जैसे
अनेक स्तर
तल की अनुभूतियाँ देते हैं
वास्तविकता से दूर
कभी धन कभी यौवन
कभी तन कभी मन
औ कभी जीवन की लालसाएँ
दुर्भिक्ष की भूख सी
घेर लेती हैं मुझे
इनका ही सहारा ले
उबरना चाहता हूँ,दो पल
पर डूबता ही जाता हूँ निरंतर
अतल के तल को
निश्चित करने

स्वयं को स्थिरता देने की चाह में
शायद खो देता हूँ
स्वयं को ही मैं
और खो जाता हूँ इन्ही के मध्य
भूल निर्लिप्तता की राह

सदा सर्वदा रहता आया
रथी मेरा
इन्ही दो अवस्थाओ के मध्य
नहीं पा सका समतल
अश्वो को लयबद्ध करता
झुझला पड़ता है सारथी
कभी कभी, औ
छोड़ देता है लगाम हाथो से
कुढता हुआ सा रथी पर
और उच्छसृंखल हो
दौड़ पड़ते हैं अश्व
अलग अलग दिशाओं में खींचते
रथ को
प्रेरित करती लगाम
बिलबिला उठता है रथी
नित निरंतर ठोकरे खा - खा उछलता
इस असमतल भूमि पर
यही होती पराकाष्ठा अनुभूति की
भौतिक जगत की मेरी

                        उमेश कुमार श्रीवास्तव

www.hamarivani.com

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