सोमवार, 9 सितंबर 2013

साथ चलोगी

 साथ चलोगी ?


कितनी दूर तुम साथ चलोगी
मेरे संग संग कदम बढ़ा कर
मैं तो पथिक दूर देश का
है अनजान मेरी डगर
क्यूँ ? कंटक पर कदम धरोगी ?


नहीं पड़ाव है ना ही मंज़िल
बस , चलना ही जीवन समझूँ
इक आशा उद्धेश्य साथ है
इक रस्ते जा दूजे आ जाऊ
पंचतत्व पतवार बना कर
क्यूँ ? यूँ मेरा साथ धरोगी ?

इस गंगे से उस गंगे तक
इस धरती से उस धरती तक
कहाँ व्योम ? कहाँ तिमिर ?
इस पथ का मैं पथिक निरंतर
क्यूँ ? फिर भी प्रस्थान करोगी ?

इस पार तुम्हें हैं लाखो खुशियाँ
जीवन की भौतिकता की
उस पार मेरी एकाकी आशा
अज्ञात ज्ञातसे मिल जाने की
सागर में खो जाने की
क्यूँ ? मुझ संग बूँद बनोगी ?

तुम्हे खींच रहे होगे जब
घनीभूत होते संबंध
विपुल विलाषिता के घेरे में
घिरे तुम्हारे होगे क्षण
उस क्षण भी क्या चंचलता तज
ध्येय धरा पर कदम धरोगी ?

ज्ञान सदृश्य तरल नहीं मैं
मन सदृश्य गतिशील नही
पर सरिता की जल राशि रहा हूँ
उबड़ खाबड़ समतल सब पर
गिरता पड़ता बहता रहता
क्यूँ ? ऐसे का साथ धरोगी ?

स्वयं नहीं जब जान सका
कौन, कहाँ और क्यूँ है मैं
है अस्तित्व धरा पर क्यूँ कर
भटक रहा जिस पर यह मैं
फिर कैसे 'तुम' को साथ करूँ
क्या ! मुझ संग 'मैं' की खोज करोगी ?

                   उमेश कुमार श्रीवास्तव
www.hamarivani.com

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